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इ॒दꣳ ह॒विः प्र॒जन॑नं मेऽअस्तु॒ दश॑वीर॒ꣳ सर्व॑गण स्व॒स्तये॑। आ॒त्म॒सनि॑ प्रजा॒सनि॑ पशु॒सनि॑ लोक॒सन्य॑भय॒सनि॑। अ॒ग्निः प्र॒जां ब॑हु॒लां मे॑ करो॒त्वन्नं॒ पयो॒ रेतो॑ऽअ॒स्मासु॑ धत्त ॥४८ ॥

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पद पाठ

इ॒दम्। ह॒विः। प्र॒जन॑न॒मिति॒ प्र॒ऽजन॑नम्। मे॒। अ॒स्तु॒। दश॑वीर॒मिति॒ दश॑ऽवीरम्। सर्व॑ऽगणम्। स्व॒स्तये॑। आ॒त्म॒सनीत्या॑त्म॒ऽसनि॑। प्र॒जा॒सनीति॑ प्रजा॒ऽसनि॑। प॒शु॒सनीति॑ पशु॒ऽसनि॑। लो॒क॒सनीति॑ लोक॒ऽसनि॑। अ॒भ॒य॒सनीत्य॑भय॒ऽ सनि॑। अ॒ग्निः। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। ब॒हु॒लाम्। मे॒। क॒रो॒तु॒। अन्न॑म्। पयः॑। रेतः॑। अ॒स्मासु॑। ध॒त्त॒ ॥४८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:48


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सन्तानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) अग्नि के समान प्रकाशमान पति (मे) मेरे लिये (बहुलाम्) बहुत सुख देनेवाली (प्रजाम्) प्रजा को (करोतु) करे, (मे) मेरा जो (इदम्) यह (प्रजननम्) उत्पत्ति करने का निमित्त (हविः) लेने-देने योग्य (दशवीरम्) दश सन्तानों का उत्पन्न करनेहारा (सर्वगणम्) सब समुदायों से सहित (आत्मसनि) जिससे आत्मा का सेवन (प्रजासनि) प्रजा का सेवन (पशुसनि) पशु का सेवन (लोकसनि) लोकों का अच्छे प्रकार सेवन और (अभयसनि) अभय का दानरूप कर्म होता है, उस सन्तान को करे। वह (स्वस्तये) सुख के लिये (अस्तु) होवे। हे माता-पिता आदि लोगो ! आप (अस्मासु) हमारे बीच में प्रजा (अन्नम्) अन्न (पयः) दूध और (रेतः) वीर्य को (धत्त) धारण करो ॥४८ ॥
भावार्थभाषाः - जो स्त्री-पुरुष पूर्ण ब्रह्मचर्य से सकल विद्या की शिक्षाओं का संग्रह कर, परस्पर प्रीति से स्वयंवर विवाह करके ऋतुगामी होकर विधिपूर्वक प्रजा की उत्पत्ति करते हैं, उनकी वह प्रजा शुभगुणयुक्त होकर माता-पिता आदि को निरन्तर सुखी करती है ॥४८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सन्तानैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(इदम्) (हविः) होतुमर्हम् (प्रजननम्) प्रजनयन्ति येन तत् (मे) मम (अस्तु) (दशवीरम्) दश वीरः पुत्रा यस्मात् तत् (सर्वगणम्) सर्वे गणाः गण्याः प्रशंसनीयाः पदार्था यस्मात् (स्वस्तये) सुखाय (आत्मसनि) आत्मानं सनति सम्भजति येन तत् (प्रजासनि) प्रजाः सनति येन तत् (पशुसनि) पशून् सनति सम्भजति येन (लोकसनि) लोकान् सनति सम्भजति येन (अभयसनि) अभयं सनति सम्भजति येन (अग्निः) अग्निरिव देदीप्यमानः पतिः (प्रजाम्) पुत्रपौत्रप्रभृतिम् (बहुलाम्) बहूनि सुखानि ददाति या ताम् (मे) मह्यम् (करोतु) (अन्नम्) (पयः) दुग्धम् (रेतः) वीर्यम् (अस्मासु) (धत्त) ॥४८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - अग्निर्मे बहुलां प्रजां करोतु मे यदिदं प्रजननं हविर्दशवीरं सर्वगणमात्मसनि प्रजासनि पशुसनि लोकसन्यभयसन्यपत्यं करोतु, तत् स्वस्तयेऽस्तु। हे मातापित्रादयो यूयमस्मासु प्रजामन्नं पयो रेतो धत्त ॥४८ ॥
भावार्थभाषाः - ये स्त्रीपुरुषाः पूर्णेन ब्रह्मचर्येण सर्वा विद्याशिक्षाः सङ्गृह्य परस्परं प्रीत्या स्वयंवरं विवाहं कृत्वा ऋतुगामिनो भूत्वा विधिवत् प्रजामुत्पादयन्ति, तेषां सा प्रजा शुभगुणयुक्ता भूत्वा पितॄन् सततं सुखयति ॥४८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे स्री-पुरुष पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करून संपूर्ण विद्यांचे शिक्षण घेतात व परस्पर प्रीतीने स्वयंवर विवाह करतात आणि ऋतुगामी बनून विधिपूर्वक संतती निर्माण करतात. त्यांची संतती शुभगुणयुक्त बनून माता व पित इत्यादींना सुखी करते.